Tuesday, August 8, 2017

वो किराये का था

लघुकथा
   
                    
 वो किराये का था

                                                       पवित्रा अग्रवाल

         चमन को दीवारों पर पेंसिल से चित्रकारी करते देख कर माँ ने गुस्से से उसकी पेंसिल तोड़ कर फेंक दी और कान खीचते  हुए बोलीं--"तुझे घर की दीवारें गन्दी करते शरम नहीं आती ?'
     "पर माँ इस से पहले भी मैं घर की दीवारों पर लिखता था तब तो आपने कभी नहीं डाँटा बल्कि मैं ही क्यों आप भी रसोई की दीवारों पर दूध वाले का हिसाब,काम वाली का हिसाब लिखती थीं...पर अब क्या हो गया ?'
 एक क्षण को तो माँ कुछ बोल नहीं पायीं फिर कुछ रुक कर बोलीं -- "बेटा वो किराए का था ये हमारा अपना घर है ।'
     "अच्छा माँ किराए के घर में लिख सकते हैं ?...फिर तो ऊपर अपने घर में जो नए किराएदार आए हैं वो तो दीवारों पर लिख सकते हैं न ?'
                                 
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